July 27, 2024

Sant Kabirdas Jayanti 2023 : सामाजिक जागरण के अग्रदूत एवं महान कवि संत कबीर दास जयंती

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हिंदी साहित्य के भक्ति काल के महान कवि संत कबीर दास की जयंती जेष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। वर्ष 2023 में ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि 4 जून को पड़ रही है अतः वर्ष 2023 में कबीर दास की जयंती 4 जून को मनाई जाएगी।

कबीर दास जी रामानंद के 12 शिष्यों में विरले थे। महात्मा कबीरदास के जन्म के समय भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा दयनीय थी।
आइए जानते हैं कबीर दास के जीवन के विषय में-

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संत कबीरदास जयंती (Sant Kabirdas Jayanti)  : हिंदी साहित्य के भक्ति काल के महान कवि संत कबीर दास (Kabirdas) की जयंती जेष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। वर्ष 2023 में ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि 4 जून को पड़ रही है अतः वर्ष 2023 में कबीर दास की जयंती (Sant Kabirdas Jayanti) 4 जून को मनाई जाएगी।
हिंदी साहित्य के भक्ति काल के संत कबीर दास इकलौते ऐसे कवि हैं, जिन्होंने आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरो पर कुठाराघात किया। उन्होंने कर्म को ही प्रधानता दी थी। उनका समस्त जीवन लोक कल्याण के प्रति समर्पित था, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकती है। कबीरदास की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता।

कबीर दास जी रामानंद के 12 शिष्यों में विरले थे। महात्मा कबीरदास के जन्म के समय भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा दयनीय थी। जहां एक ओर जनता मुसलमान शासकों की धर्मांधता से त्रस्त थी। वहीं दूसरी ओर हिंदू धर्म के कर्मकांड विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। जनता में भक्ति भाव का सर्वथा अभाव था। ऐसे संघर्ष के समय में कबीर दास का प्रादुर्भाव हुआ।

आइए जानते हैं कबीर दास के जीवन के विषय में-

कबीरदास का जन्म

कबीरदास (kabirdas) का जन्म जेष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को सन 1398 ईसवी (संवत1455) के आसपास काशी के लहरतारा में हुआ था। जैसा कि इस दोहे में स्पष्ट है-
चौदह सौ पचपन साल गए, चंद्रवार इक ठाट भाए
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रगट भए।
कबीरदास (kabirdas) के जन्म के संबंध में अनेक मत हैं कबीरपंथी मानते हैं कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ था। वहीं कुछ लोगों का कहना है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे। जब वे रामानंद के प्रभाव में आए तब उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ। कहा जाता है कि कबीर जब एक बार पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े उसी समय रामानंद जी गंगा स्नान करने के लिए सीढ़ियां उतर रहे थे और उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। कबीर के शरीर पर रामानंद का पैर पड़ते ही कबीर के मुख से राम- राम शब्द निकल पड़ा और इसी राम शब्द को कबीर ने दीक्षा मंत्र और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

कबीरदास का जन्म स्थान

कबीर के जन्म के संबंध में तीन मत प्रचलित हुई हैं, काशी, मगहर और आजमगढ़ का बेलहरा गांव संत कबीर दास जी ने अपनी रचना में उल्लेख किया हैजी
“पहले दर्शन मगहर पायो, पुनि काशी बसे आई”।
अर्थात कबीर ने पहले मगहर देखा जो वाराणसी के निकट है मगहर में कबीर का मकबरा भी स्थित है।
प्रमाण के अभाव के कारण यह निश्चित नहीं है फिर भी कबीरपंथियों का विश्वास है कि कबीर का जन्म काशी में हीं हुआ था। वह काशी के जुलाहा के रूप में जाने जाते थे। कबीर का अधिकांश जीवन काशी में व्यतीत हुआ था। आजमगढ़ के बेलहरा गांव को भी बहुत से लोग कबीर का जन्म स्थान मानते हैं। हालांकि आजमगढ़ जिले में कबीर, उनके पंथ या अनुयायियों का कोई स्मारक नहीं है।

कबीरदास के माता पिता

कबीर दास (Kabir Das) जी के माता पिता को लेकर भी एकमत नहीं है। कोई उन्हें नीमा और नीरू की कोख से उत्पन्न हुई अनुपम ज्योति बताता है। तो कोई विधवा ब्राह्मणी की संतान के रूप में जानता है। एक किंबदंती के अनुसार एक विधवा ब्राह्मणी को रामानंद जी ने भूल से पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। उसी विधवा ब्राह्मणी ने कबीर को पुत्र रूप में जन्म दिया, लेकिन लोक लाज के भय से उस विधवा ब्राह्मणी ने कबीर को लहरतारा की सीढ़ियों पर छोड़ दिया था जिसे नीमा और नीरू ने उठाकर उनका पालन पोषण किया।
नीरू और नीमा एक जुलाहा दंपति थे। अतः कबीर दास जी का जीवन भी जुलाहा जाति के परंपरागत विश्वासों से प्रभावित रहा।

कबीरदास जी की शिक्षा

कबीर दास पढ़े-लिखे नहीं थे। वह अपनी उम्र के बालकों से भिन्न थे। कबीर के माता-पिता की आर्थिक स्थिति उन्हें विद्यालय या मदरसा भेजने लायक नहीं थी। यही कारण है कि कबीरदास किताबी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकें। उन्होंने स्वयं अपने दोहे में कहा है-

“मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ”

कबीर के जितने भी ग्रंथ हैं उन्होंने स्वयं नहीं लिखा बल्कि शिष्यों द्वारा लिखवाया है। वह मुंह से बोलते थे और उनके शिष्य लिखते थे। अनपढ़ होते हुए भी कबीर दास जी का ज्ञान बहुत विस्तृत था। साधु संतों और फकीरों की संगति में बैठकर उन्होंने वेदांत, उपनिषद और योग का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया था।

कबीरदास का वैवाहिक जीवन

कबीरदास का विवाह लोई नाम की कन्या से हुआ था जो वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या थी। कबीर दास जी की दो संतान थी। पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली था। कबीर दास का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था। जैसा कि इन पंक्तियों से स्पष्ट है-
” बूड़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल
हरिका सिमरन छोड़, के घर ले आया माल।”
हालांकि कबीर पंथ में कबीर को बाल ब्रह्मचारी और बैरागी माना जाता है। कबीर पंथ के अनुसार कमाल को उनका शिष्य और कमाली तथा लोई को कबीर का शिष्य बताया गया है। कहा जाता है कि कबीर दास ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात गृहस्थ जीवन का त्याग कर अपनी पत्नी और पुत्री को शिष्य बना लिया था। कबीर ने अपने दोहे में स्पष्ट कहा है-
“नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार
जब जानी तब परिहरी, नारी महा विकार।”

कबीर दास की गुरु दीक्षा

कबीर दास यह अच्छी तरह जानते थे कि गुरु के बिना संसार के भवसागर से पार उतरना कठिन है क्योंकि गुरु ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखा सकता है। अतः उन्होंने गुरु बनाने का निश्चय किया। लेकिन कबीर के समय में जात- पात का भेदभाव था। उस समय काशी में रामानंद नाम के एक बड़े उच्च कोटि के संत हुआ करते थे। कबीरदास रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहते थे। लेकिन काशी में पंडितों और पंडाओं का अधिक प्रभाव होने और जात- पात का भेदभाव होने के कारण कबीरदास रामानंद के पास नहीं जा पाते थे। क्योंकि कबीर मुसलमान थे। 

कबीरदास जी को जब पता चला कि रामानंद प्रत्येक दिन भोर में 4 बजे गंगा स्नान करने खड़ाऊं पहन कर जाते हैं। तो उन्होंने गंगा के घाट पर जाने वाले प्रत्येक रास्ते को बंद कर दिया। सिर्फ एक रास्ते को खुला रखा और उसी रास्ते में भोर के अंधेरे में कबीरदास लेट गए। ज्यों ही रामानंद ने सीढ़िया उतरने के लिए कदम बढ़ाया तो अंधेरा होने के कारण रामानंद का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया और उनके मुख से राम- राम निकल पड़ा। बस फिर क्या था कबीर दास का तो काम बन गया। कबीर को रामानंद की पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया, गुरु दर्शन भी हो गए और गुरु मुख से राम- नाम का गुरु मंत्र भी मिल गया। अब तो कबीरदास ने राम- नाम और गुरुदेव के नाम की रट लगा दी थी। वे अत्यंत स्नेह पूर्वक गुरु मंत्र का जाप करते और साधना करने लगे।

काशी के पंडितों ने जब देखा कि एक यवन पुत्र राम- नाम जपता है और रामानंद के नाम का कीर्तन करता है। तो सोचने लगे कि इस यवन को राम नाम की दीक्षा किसने दी? क्यों दी? पंडितों ने कबीर से पूछा
“तुझे राम नाम की दीक्षा किसने दी?”
कबीर ने कहा “रामानंद जी महाराज के श्री मुख से।”
“कहां दी?”
“सुबह गंगा के घाट पर”
पंडितों ने जब रामानंद के पास पहुंच कर जब कहा कि आपने एक यवन को राम मंत्र देखकर मंत्र को नष्ट कर दिया, समुदाय को भ्रष्ट कर दिया, गुरु महाराज आपने यह क्या किया। तो गुरु रामानंद ने कहा मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी पंडितों ने कहा कि वह यवन जुलाहा आपका नाम बदनाम कर रहा है। तो रामानंद ने कहा कि उसको बुलाकर पूछा जाए।

काशी के पंडितों ने इकट्ठा होकर कबीर को बुलाया। रामानंद ने कबीर से पूछा “मैंने तुझे दीक्षा कब दी”?” मैं कब तेरा गुरु बना?” कबीर दास जी ने उस दिन की सारी घटना रामानंद को बता दी। रामानंद क्रोधित हो गए लेकिन कबीर अपनी बात पर अडिग थे। रामानंद जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने अपना खड़ाऊ कबीर के सिर पर दे मारा और कहा “राम… राम… राम कितना झूठ बोलता है”
कबीर दास जी ने कहा गुरु महाराज उस दिन की दीक्षा झूठी हो सकती है लेकिन आज तो सच्ची दीक्षा मिल गई। आपके मुख से राम नाम का गुरु मंत्र भी मिल गया और आप की पावन पादुका का स्पर्श भी मेरे मस्तक में हो गया। कबीर की गुरु भक्ति देखकर रामानंद कुछ घड़ी भर शांत रहें ।थोड़ी देर बाद पंडितों से कहा,
“यवन हो या कुछ भी हो यह मेरा पहले नंबर का शिष्य है”
क्योंकि रामानंद उच्च कोटि के संत महात्मा थे। उन्होंने कबीरदास की अगाध गुरुभक्ति को पहचान लिया था। कबीरदास ने अपनी रचनाओं में गुरु को ईश्वर से अधिक महत्व दिया है।
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय।”
क्योंकि गुरु ही है जो ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाता है। अतः गुरु का स्थान सर्वोच्च है।

निर्गुण ब्रह्मा के उपासक थे कबीर

कबीर दास जी निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। वे अंधविश्वास, धर्म, पूजा के नाम पर होने वाले बाह्य आडंबरों के विरोधी थे। वे एक ही ईश्वर को मानते थे। निर्गुण निराकार ब्रह्म में उनका अटूट विश्वास था। कबीर ने ‘ राम’ और ‘ हरि’ शब्द निर्गुण ब्रह्म के लिए प्रयोग किया है। कबीर एक स्वच्छंद विचारक थे।

कबीरदास की अनमोल रचनाएं

कबीर दास जी हिंदी साहित्य के महानतम कवि, प्रकांड विद्वान तथा सच्चे समाज सुधारक थे। अपनी रचनाओं में जहां एक ओर उन्होंने ईश्वर की स्तुति की है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक बुराइयों बाह्य आडंबरों और कोरितियो पर भी कुठाराघात किया है।
कबीर दास की अधिकांश रचनाएं दोहे, गीत और काव्य में रची गई हैं। उनकी प्रमुख रचना उनकी वाणी का संग्रह है, ‘ बीजक’ बीजक के तीन भाग हैं-

  • साखी
  • सबद
  • रमैनी

कबीर दास की अन्य रचनाएं हैं- अमर मूल, अलिफ नामा, आरती कबीर कृत, उग्र गीता, कबीर की वाणी, कबीर अष्टक, ज्ञान गुदड़ी, अगाध मंगल, चौतीसा कबीर का, ज्ञान चौतीसी आदि कबीर दास की कुल 72 रचनाएं हैं।

कबीर दास जी ने अपनी रचनाओं में मानवीय मूल्यों की व्याख्या के साथ-साथ भारतीय धर्म, संस्कृति और भाषा का उपयुक्त समावेश किया है, कबीरदास की रचनाएं सैकड़ों वर्षो से मानव जाति के लिए प्रेरणा बनी हुई है।

कबीर दास की मृत्यु

कबीर दास जी ने अपना संपूर्ण जीवन काशी में व्यतीत किया लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में वे मगहर चले गए थे, जहां उन्होंने सन 1518 में अंतिम सांस ली। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात उनके शव को लेकर अंतिम संस्कार के लिए विवाद उत्पन्न हो गया। हिंदू उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति रिवाज से करना चाहते थे। जबकि मुसलमान मुस्लिम रीति से उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे। इस विवाद के दौरान जब उनके शव से चादर हट गई तो वहां मृत शरीर की जगह फूलों का ढेर था। हिंदू और मुसलमानों ने आधे- आधे फुल बांट लिये। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से तथा हिंदू ने हिंदू रीति से उनका अंतिम संस्कार किया। कबीर दास जी की समाधि मगहर में स्थित है।

आचार्य हजारी प्रसाद के शब्दों में

“कबीर दास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वह वाणी के डिटेक्टर डिटेक्टर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में चाहा उसे उसी रूप में कहलवा लिया-बन गया है तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है”