July 27, 2024

Chaitra Navratri 2024: इस नवरात्रि जानिए मां दुर्गा के नौ स्वरूपों के बारे में

Chaitra Navratri 2024: इस नवरात्रि जानिए मां दुर्गा के नौ स्वरूपों के बारे में

Chaitra Navratri 2024: हिंदू धर्म ग्रंथ एवं पुराणों के अनुसार नवरात्रि माता भगवती की उपासना एवं आराधना का श्रेष्ठ समय होता है। नवरात्रि एक ऐसा पर्व है जो हमारी संस्कृति में महिलाओं के गरिमामय स्थान को दर्शाता है। नवरात्रि में 9 दिन भगवती के 9 स्वरूपों की आराधना की जाती है।

“प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।”

देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गा शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं,जिनकी उत्पत्ति देवताओं की प्रार्थना पर राक्षसों का नाश करने के लिए हुई थी। आइए जानते हैं मां दुर्गा के 9 स्वरूपों के बारे में-

शैलपुत्री प्रथम

Navratri 1st Day Maa Shailputri

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूर्णेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना के साथ मां दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन मां दुर्गा के शैलपुत्री स्वरूप की पूजा होती है। मां शैलपुत्री का वाहन वृषभ है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। पर्वत राज हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लेने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।

पूर्व जन्म में मां शैलपुत्री प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी। प्रजापति दक्ष ने अपने पिता ब्रह्मा जी के कहने पर सती का विवाह शिव से किया था। एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया। इस यज्ञ में दक्ष ने शिव जी को निमंत्रण नहीं भेजा लेकिन अपने पिता के यहां यज्ञ का समाचार सुनकर सती बिना निमंत्रण के ही शिव जी के मना करने के बाद भी चली गईं। उन्होंने यज्ञ में अपने पति भगवान शिव का स्थान न देखकर क्रोधित हो गईं।अपने पिता द्वारा शिव का अपमान किए जाने पर उन्होंने दक्ष से उत्पन्न शरीर को ही योगाग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में सती ने ही हिमाचल राज के यहां पुत्री रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री के नाम से विख्यात हुई ।

नवरात्रि के प्रथम दिन शैलपुत्री की पूजा और उपासना की जाती है। शैलपुत्री भगवान शिव की अर्धांगिनी बनीं। नवदुर्गा में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियां अनंत है। नवरात्रि के प्रथम दिन साधक उपासना में अपने मन को मूलाधार चक्र में अवस्थित करता है। यही से उनकी योग साधना प्रारंभ होती है। शैलपुत्री के पूजन से मूलाधार चक्र जागृत होता है।

ब्रह्मचारिणी द्वितीय

ब्रह्मचारिणी द्वितीय

“वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गांं त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥”

मां दुर्गा की 9 शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्म शब्द का अर्थ है तपस्या अर्थात तप का आचरण करने वाली देवी। ब्रह्मचारिणी देवी के दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएं हाथ में कमंडल है। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और पूर्ण ज्योतिर्मय है।

पूर्व जन्म में हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लेने पर नारद जी के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की थी। 1000 वर्षों तक फल खा कर रहीं। उपवास के समय खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप को सहन किया। 100 वर्षों तक केवल शाक पर निर्भर रहीं। जमीन पर टूट कर गिरे बेल पत्रों को खाकर 3000 वर्ष तक भगवान शिव की आराधना में लीन रहीं और हजारों वर्षों का निर्जल और निराहार व्रत किया। उनकी इसी दुष्कर एवं कठिन तपस्या के कारण इनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा।

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इनका एक नाम ‘अपर्णा’ भी है। तपस्या के समय पत्तों का सेवन भी त्याग देने पर इनका नाम ‘अपर्णा’ पड़ा।उनकी इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्व जन्म का शरीर एकदम क्षीण हो गया। उनकी इस तपस्या से तीनों लोक में हाहाकार मच गया था। ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व कृत्य बताते हुए देवता, ऋषि, सिद्धगण,मुनि सभी उनकी सराहना करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी की कि है देवी आज तक इस प्रकार की ऐसी कठोर तपस्या किसी ने भी नहीं की। तुम्हारी तपस्या सफल हुई। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी और भगवान शिव तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे।

दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी ब्रह्मचारिणी स्वरूप की उपासना की जाती है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों को अनंत फल देने वाला है। मां ब्रह्मचारिणी की उपासना से मनुष्य में तप,त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। नवरात्रि के दूसरे दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला साधक मां ब्रह्मचारिणी की कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। साधक का मन जीवन के कठिन संघर्षों में भी कर्तव्य पद से विचलित नहीं होता है।

चंद्रघंटा तृतीय

चंद्रघंटा तृतीय

“वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥”

नवरात्रि के तीसरे दिन मां दुर्गा के तृतीय शक्ति की आराधना की जाती है। मां दुर्गा की तृतीय शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। उनके माथे पर घंटे का आकार का अर्धचंद्र है। इसीलिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। मां दुर्गा का चंद्रघंटा स्वरूप शांति दायक और कल्याणकारी है। शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है और मां चंद्रघंटा का वाहन सिंह है। उनके 10 हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। मां चंद्रघंटा के घंटे की भयानक चंद्र ध्वनि से दानव अत्याचारी दैत्य राक्षस डरते रहते हैं।

नवरात्रि के तीसरे दिन साधक का मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। अतः इस दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है। मां चंद्रघंटा की कृपा से सड़क के समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं।

मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक को अलौकिक दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंध और विविध ध्वनियां सुनाई देती हैं। इस क्षण में साधक को अत्यंत सावधान रहना होता है। मां चंद्रघंटा की आराधना सद्यः फलदाई होती है। उनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती है। अतः मां चंद्रघंटा भक्तों के कष्टों का शीघ्र निवारण कर देती हैं। दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरूप साधक के लिए अत्यंत सौम्यता और शांति से परिपूर्ण रहता है। मां चंद्रघंटा की आराधना करने से साधक में वीरता, निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होता है। साधक के मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया में कांतिगुण की वृद्धि होती है। साधक के स्वर में दिव्यता, अलौकिकता और माधुर्य का समावेश हो जाता है। मां चंद्रघंटा के साधक को देखकर ही शांति और सुख का अनुभव होता है। ऐसे में साधक के शरीर से दिव्य प्रकाश युक्त परमाणुओं का दिव्य अदृश्य विकिरण होता है। हालांकि दिव्या क्रिया साधारण चक्षुओं से नहीं दिखाई पड़ती लेकिन साधक के संपर्क में आने वाले को इसका अनुमान हो जाता है। मां चंद्रघंटा का ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी है।

कुष्मांडा चतुर्थ

कुष्मांडा चतुर्थ

“वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥”

नवरात्रि के दिन के चौथे दिन मां दुर्गा के चौथे स्वरूप कूष्मांडा की आराधना की जाती है। संस्कृत भाषा में कुष्मांडा कुम्हड़े को कहा जाता है। इन्हें कुम्हड़े की बलि अतिप्रिय।इस कारण से भी इन्हें कूष्मांडा के नाम से जाना जाता है। अपनी मंद हंसी से अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से जाना जाता है। मां कुष्मांडा सृष्टि की आदि स्वरूप और आदिशक्ति भी हैं। जब चारों ओर अंधकार ही अंधकार था। सृष्टि नहीं थी तब इन्होंने ईषत हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। सूर्य लोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल मां कुष्मांडा में ही है। इनका निवास सूर्य में उनके भीतर के लोक में है।

नवरात्रि के चौथे दिन साधक अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। इस दिन मां कुष्मांडा के स्वरूप की पूजा की जाती है। मां कुष्मांडा देवी की पूजा से भक्त के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। मां कुष्मांडा देवी की पूजा एवं आराधना से यश, बल, आयु और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।

मां कुष्मांडा की 8 भुजाएं हैं। उनके सात हाथों में कमंडल, धनुष बाण, अमृत पूर्ण कलश, कमल पुष्प, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इनकी सच्चे मन से आराधना की जाए और उनके शरणागत हो जाए तो उसे अत्यंत सुगमता से परमपद की प्राप्ति हो जाती है। मां कुष्मांडा देवी अल्पसेवा और अल्पभक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं।

स्कंदमाता पंचम

स्कंदमाता पंचम

“वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥”

नवरात्रि के पांचवें दिन मां दुर्गा के पांचवे स्वरुप को स्कंद माता के रूप में जाना जाता है। स्कंद कुमार भगवान शिव और माता पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र हैं, जो देव सुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। इनका वाहन मयूर है भगवान स्कंद की माता होने के कारण ही माता के पांचवें स्वरूप को स्कंदमाता के रूप में जाना जाता है। स्कंदमाता के विग्रह में स्कंद जी (कार्तिकेय ) बाल रूप में माता की गोद में बैठे हैं ।

नवरात्रि के पांचवें दिन साधक का मन ‘ विशुद्ध चक्र’ में होता है। नवरात्रि के पांचवें दिन स्कंदमाता की पूजा की जाती है। स्कंद माता की चार भुजाएं हैं। यह दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कंद को गोद में पकड़े हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है उसमें कमल पकड़ी हुई हैं।कमल के पुष्प पर विराजमान स्कंद माता का स्वरूप पूर्णत: शुभ्र है। इनका वाहन सिंह है। कमल पुष्प पर विराजमान होने के कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है।

कात्यायनी षष्ठम

कात्यायनी षष्ठम

“वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥”

मां दुर्गा के छठे स्वरूप को मां कात्यायनी के रूप में पूजा जाता है। महर्षि कात्यायन द्वारा उनकी पूजा किए जाने के कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा।

एक कथा के अनुसार कत नाम के प्रसिद्ध ऋषि से कात्य ऋषि उत्पन्न हुए थे। कात्य ऋषि के नाम से प्रसिद्ध गोत्र से ही विश्व प्रसिद्ध ऋषि कात्यायन उत्पन्न हुए। कात्यायन ऋषि ने मां भगवती पराम्बा की कठिन उपासना की। उनकी इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी यह प्रार्थना भगवती ने स्वीकार कर ली। महिषासुर राक्षस का अत्याचार बढ़ जाने पर उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा,विष्णु और महेश ने अपने तेज और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के बाद शुक्ल पक्ष सप्तमी,अष्टमी और नवमी तीन दिनों तक कात्यायन ऋषि ने उनकी पूजा की। पूजा ग्रहण कर दशमी को इस देवी ने महिषासुर का वध किया। महर्षि कात्यान की पूजा के कारण ही यह देवी कात्यायनी कहलाई।

मां कात्यानी का स्वरूप अत्यंत दिव्य है। इनकी चार भुजाएं हैं। इनका दाहिना ऊपर का हाथ अभय मुद्रा में तथा नीचे का वर मुद्रा में है। बाएं ऊपर वाले हाथ में तलवार और निचले हाथ में कमल का फूल है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्रि के छठे दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में अवस्थित होता है। योग साधना में आज्ञाचक्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित साधक कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है। मां कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ,काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

कालरात्रि सप्तम

कालरात्रि सप्तम

“करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥”

नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा की जाती है। मां दुर्गा के सातवें स्वरूप को कालरात्रि के नाम से जाना जाता है। उनके शरीर का रंग काला है। मां कालरात्रि के बाल बिखरे हुए हैं।गले में विद्युत की भांति चमकने वाली माला है। ब्रह्मांड की तरह गोल तीन नेत्र हैं।उनके नेत्रों से बिजली की भांति चमकीली किरणें निकलती रहती है। इनकी नासिका से श्वास और नि: स्वास से अग्नि की भयंकर ज्वाला निकलती रहती हैं। मां कालरात्रि के दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में तथा। दाहिना नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। बाईं ओर के ऊपरी हाथ में लोहे का कांटा और निचले हाथ में खड्ग है। इनका वाहन गर्दभ (गधा) है। अत्यंत भयानक दिखने वाली मां कालरात्रि का स्वरूप सदा ही शुभ फलदायक है।

नवरात्रि के सातवें दिन साधक का मन सहस्त्त्रारचक्र में अवस्थित होता है। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णत: मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। मां के साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का साधक अधिकारी होता है। साधक के लिए सभी सिद्धियों के द्वार खुलने लगते हैं। साधक की समस्त विधाओं और बाधाओं और पापों का नाश हो जाता है। कालरात्रि की कृपा से अग्नि भय, आकाश भय, भूत पिशाच स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं। भगवती कालरात्रि का ध्यान, कवच स्तोत्र का जप करने से भानु चक्र जागृत होता है।

महागौरी अष्टम

महागौरी अष्टम

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्।
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्।
कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥

नवरात्रि के आठवें दिन मां दुर्गा के आठवें स्वरूप महागौरी की आराधना की जाती है। भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए इन्होंने पार्वती रूप में कठोर तपस्या की थी। भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या का संकल्प लेने के कारण उनका शरीर काला पड़ गया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर जब शिवजी ने उनके शरीर को पवित्र गंगाजल से मल कर धोया तो इनका शरीर विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान और गौर वर्ण हो गया तभी से इनका नाम गौरी पड़ा।

इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख,चंद्र और कुंद के फूल से की गई है। इनकी आयु 8 वर्ष बताई गई है।इनके दाहिना ऊपरी हाथ अभय मुद्रा में निचले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। बाएं ऊपर वाले हाथ में डमरू और बाएं नीचे वाला हाथ वरमुद्रा में है। इनका वाहन वृषभ है। मां महागौरी का ध्यान, स्त्रोत पाठ और कवच का पाठ करने से सोम चक्र जागृत होता है। इनकी उपासना से धन, संपत्ति और श्री की वृद्धि होती है। इससे संकट से मुक्ति मिलती है।

सिद्धिदात्री नवम

सिद्धिदात्री नवम

“वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्।।”

नवरात्रि के नौवे दिन मां दुर्गा के नौवे स्वरूप मां सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। मां सिद्धिदात्री सभी सिद्धियों को देने वाली है। मां सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। यह कमल पुष्प पर आसीन हैं। उनकी दाहिनी नीचे वाली भुजा में चक्र, ऊपर वाली भुजा में गदा और बाएं तरफ नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है।

मार्कंडेय पुराण के अनुसार अणिमा,महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां होती हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इन्हीं की कृपा से सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की अनुकंपा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वह संसार में अर्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। नवरात्रि पूजन के नौवे दिन इनकी पूजा की जाती है। भगवती सिद्धिदात्री की उपासना से निर्वाण चक्र जागृत होता है।

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