July 27, 2024

Reservation System In India : भारतीय संविधान में आरक्षण से जुड़े रोचक तथ्य एवं इतिहास( Interesting facts and history related to reservation in Indian constitution)

 ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो भारत में आरक्षण की शुरुआत 1909 के मार्ले मिंटो सुधार के साथ हुई थी। 1932 में कम्यूनल एवार्ड लागू हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य दलितों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ना था। 1935 से लागू भारतीय शासन अधिनियम में कुछ विशेष वर्गों के लिए स्पष्ट प्रावधान किए गए। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों को शासन में प्रतिनिधित्व देना था। भारतीय शासन अधिनियम 1935 से प्रेरित भारतीय संविधान में डा० भीमराव अम्बेदकर के प्रयासों से पिछड़ों तथा दलितों के समग्र विकास हेतु विशेष प्रावधान किए गए।

Reservation System In Indian Constitution : Janpanchayat Hindi News

भारतीय संविधान में आरक्षण का इतिहास (History of Reservation in Indian Constitution)

क्या स्वतंत्रता मिलने से पूर्व भारत मे आरक्षण लागू था?

 ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो भारत में आरक्षण (reservation) की शुरुआत 1909 के मार्ले मिंटो सुधार के साथ हुई थी। 1932 में कम्यूनल एवार्ड लागू हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य दलितों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ना था। 1935 से लागू भारतीय शासन अधिनियम में कुछ विशेष वर्गों के लिए स्पष्ट प्रावधान किए गए। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों को शासन में प्रतिनिधित्व देना था। भारतीय शासन अधिनियम 1935 से प्रेरित भारतीय संविधान में डा० भीमराव अम्बेदकर के प्रयासों से पिछड़ों तथा दलितों के समग्र विकास हेतु विशेष प्रावधान किए गए।

स्वतंत्र भारत मे आरक्षण की शुरुआत ( Reservation started in independent India)

सर्वप्रथम मद्रास राज्य ने 1950 में राज्य के मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों में विभिन्न जातियों के विद्यार्थियों को आरक्षण देने हेतु राजाज्ञा जारी की। इस पर जबरदस्त विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई। तत्पश्चात सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराईराजन’ के वाद में इस राजाज्ञा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के विपरीत घोषित करते हुए अमान्य कर दिया।
उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न स्थिति को दूर करने के लिए 1951 में प्रथम संविधान संशोधन करके अनुच्छेद 15(4) को जोड़ा गया, जिसके अनुसार राज्यों को यह अधिकार दिया गया कि वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है। इस प्रावधान के बाद अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था की गयी। अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण किये जाने के बाद राजनीतिज्ञों द्वारा मांग की जाने लगी कि पिछड़े वर्गों के लिए भी सरकारी सेवाओं के आरक्षण के लिए प्रावधान किया जाय। लेकिन पिछड़े वर्ग के अन्तर्गत कौन आता है, यह निश्चित नहीं था।

प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग)

पिछड़ा वर्ग में किसे शामिल किया जाए और किसे नहीं, यह निश्चित करने के लिए जनवरी, 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने 2399 जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल किया। जिनमें से 837 जातियों को अत्यधिक पिछड़े वर्ग का घोषित किया। इस आयोग ने सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण के सम्बन्ध में सिफारिश की, लेकिन इसे पूरा नहीं किया गया। वास्तव में कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में ‘सामाजिक एवं शैक्षणिक मानदण्ड’ को स्पष्टतया परिभाषित नहीं किया गया था। इस रिपोर्ट पर विवाद भी इसी कारण हुआ था और अंततः इसे लागू नहीं किया जा सका।

मंडल आयोग का गठन ( Constitution of Mandal Commission)

20 दिसंबर, 1978 को विन्देश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में एक अन्य आयोग का गठन पिछड़ी जातियों की पहचान सुनिश्चित करने हेतु किया गया। इस आयोग द्वारा मई 1980 में 404 पृष्ठों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी गयी। इस रिपोर्ट में हिंदू एवं गैर हिंदू समुदाय की 3473 जातियों को पिछड़ी जाति में रखते हुए इनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की संस्तुति की गयी थी। रिपोर्ट में आयोग ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि समाज के 52% पिछड़े वर्गों के लिए मात्र 27% आरक्षण की सिफारिश तर्कसंगत नहीं है। आयोग के अनुसार आरक्षण की अधिकतम 50% की संवैधानिक सीमा को ध्यान में रखते हुए ही 27% आरक्षण की संस्तुति की जा रही है। यदि यह सीमा न होती तो इसे और भी बढ़ाए जाने के तर्क संगत आधार है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि 1963 में ‘बालाजी बनाम मैसूर राज्य’ के वाद में सर्वोच न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा को 50% निर्धारित किया था।

मंडल आयोग की रिपोर्ट, लगभग दस वर्षों तक फाइलों में दबे रहने के बाद, विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में पुनः चर्चा में आई। 13 अगस्त, 1990 को सरकार ने कार्यपालिकीय आदेश जारी करते हुए पिछड़े वर्गों हेतु 27% आरक्षण की व्यवस्था लागू की। इस घोषणा की प्रतिक्रिया देश भर में हुई। स्थान-स्थान पर न केवल हिंसक आंदोलन हुए बल्कि आरक्षण के विरोध में कई युवा बेरोजगारों ने सार्वजनिक स्थलों पर आत्मदाह तक किया। सर्वोच न्यायालय के अधिवक्ता संघ द्वारा सरकार के इस कार्यपालिकीय आदेश पर रोक लगाने हेतु एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गयी। न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की खंडपीठ द्वारा 27% आरक्षण के उक्त आदेश का क्रियान्वयन स्थगित कर दिया गया। पी०वी० नरसिम्हा राव द्वारा प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद इसी आदेश को कुछ संशोधनों के साथ जारी किया गया। इस आदेश के कुछ प्रावधानों के विरोध में सर्वोध न्यायालय में ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ’ नामक वाद दायर किया गया। इस वाद की सुनवाई करते हुए सर्वोच न्यायालय की नौ सदस्यीय खण्डपीठ में जो निर्णय लिया गया उसके कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं-

(1) संविधान के अनुच्छेद 16(4) में प्रयुक्त शब्द ‘पिछड़ा वर्ग’ अन्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा कुछ पिछड़े वर्गों को शामिल करता है तथा इसके लिए पिछड़ेपन का मुख्य आधार सामाजिक रूप से पिछड़ापन है तथा सामाजिक पिछड़ेपन में ही आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन सम्मिलित है।

(2) पिछड़े वर्ग का पता लगाने के लिए जाति को वर्ग माना जा सकता है लेकिन पिछड़े वर्ग का निर्धारण आर्थिक आधार पर नहीं किया जा सकता। इसी के साथ यह भी अवधारित किया गया है कि पिछड़े वर्ग का पता लगाने के लिए उन जातियों के सामाजिक तथा आर्थिक रूप से “उन्नत व्यक्तियों” को पिछड़े वर्ग में शामिल नहीं किया जाना चाहिए, जिन्हें वर्ग के रूप में माना गया है।

(3) असाधारण स्थितियों के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थिति में सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत 50% से अधिक नहीं होना चाहिए। यदि कोई राज्य या प्रतिष्ठान 50% से अधिक आरक्षण की व्यवस्था करता है, तो उसे इसके लिए विशेष कारणों का उल्लेख करना होगा।

(4) सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जायेगा लेकिन अब तक पदोन्नति का लाभ प्राप्त किए व्यक्ति या पदधारी प्रभावित नहीं होंगे।

(5) केन्द्र या राज्य सरकारों के अधीन सेवा के लिए आरक्षण का प्रावधान अधिशासी आदेश द्वारा भी किया जा सकता है तथा इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि आरक्षण का प्रावधान करने के लिए संसद का विधान मण्डलों द्वारा कानून पारित किया जाये।

(6) आरक्षण का लाभ अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़े वर्गों को भी दिया जाये।

(7) आरक्षण के लिए अनुच्छेद 16(4) के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों में अधिक और अत्यधिक पिछड़ों का वर्गीकरण किया जा सकता है किन्तु यह वर्गीकरण सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर होना चाहिए न कि आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर।

(8) 50% आरक्षण की सीमा किसी सेवा में कुल रिक्तियों की क्षमता के सन्दर्भ में देखी जानी चाहिए। इस प्रकार आरक्षण की सीमा एक वर्ष में घोषित कुल रिक्तियों की 50% होगी न कि कुल सेवा क्षमता का।

क्या है "क्रीमी लेयर" ? (What is "creamy layer"?)

क्रीमी लेयर की अवधारणा – (Concept of Creamy Layer)

 सर्वोच्च न्यायालय ने मंडल आयोग (Supreme Court Mandal Commission) की संस्तुतियों पर दिए गए अपने निर्णय में यह भी कहा था कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्ग में सबसे पिछड़े लोगों को ही मिलना चाहिए। यदि पिछड़े वर्ग में कोई सम्पन्न है तो उसे इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए। पिछड़े वर्ग में संपन्न लोगों को “क्रीमी लेयर” (Creamy Layer) नाम दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर की पहचान के लिए एक विशेष समिति के गठन का निर्देश भी दिया था। इस निर्देश के अंतर्गत 16 नवंबर 1992 को केंद्र सरकार द्वारा न्यायमूर्ति रामनंदन प्रसाद की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया। 10 मार्च 1993 को सरकार को प्रस्तुत समिति की रिपोर्ट के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं –

(1) एक लाख रुपए तक से अधिक वार्षिक आय वालों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

(2) राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय तथा न्यायालयों के न्यायाधीशों, संघ लोक सेवा आयोग व राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, चुनाव आयुक्तों, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तया कतिपय अन्य संवैधानिक पद पर रहे व्यक्तियों की संतानों को
आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

(3) पति-पत्नी में से किसी एक के प्रथम श्रेणी के अधिकारी होने अथवा दोनों के द्वितीय श्रेणी के अधिकारी होने की स्थिति में उनकी संतानों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

(4) संयुक्त राष्ट्र अथवा उससे संबंद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में 5 वर्ष तक नौकरी करने वाले व्यक्ति की संतानों को आरक्षण का लाभ
नहीं मिलेगा।

(5) सेना में कर्नल अथवा उससे ऊपर के पदों तथा उसके समकक्ष पदों पर आसीन सैन्य अधिकारियों की संतानों को आरक्षण के लाभ नहीं मिलेगा।

(6) डाक्टर, वकील, चार्टर्ड एकाउटेंट, लेखक, कम्प्यूटर विशेषज्ञ इत्यादि जिनकी आय एक लाख रुपए वार्षिक से अधिक है अथवा उस छूट सीमा से लगातार तीन वर्ष तक अधिक सम्पत्ति धारण करते हो जो सम्पदा अधिनियम में विहित है, की संतानों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

प्रसाद समिति की रिपोर्ट के आधार पर पिछड़े वर्गों के सम्पन्न लोगों को अलग करते हुए केंद्र सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों, सार्वजनिक उपक्रमों, वित्तीय संस्थानों की सेवाओं में 27% आरक्षण की अधिसूचना जारी की गई। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को भी इसी आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का निर्देश दिया गया किंतु पिछड़े वर्गों के विकास का मात्र ढिढोरा पीटने वाली अधिकांश राज्य सरकारों ने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए इसे लागू करने में कोई तत्परता नहीं दिखाई।

वर्तमान में क्रीमी लेयर की आय सीमा क्या है?

क्रीमी लेयर की आय सीमा को कई बार संशोधित किया गया है। जब ये पहली बार लागू हुआ था तब केंद्र सरकार ने निर्धारित किया था कि इसे हर 3 साल में संशोधित किया जाएगा। लेकिन 1993 के बाद पहला संशोधन 9 मार्च, 2004 में हुआ। तब एक लाख रुपये की आय सीमा को बढ़ाकर 2.50 लाख रुपये किया गया था। फिर अक्टूबर 2008 में इसे और बढ़ाकर 4.50 लाख किया गया। मई 2013 में इसे 6 लाख किया गया। आख़िरी बार 13 सितंबर 2017 को एन.डी.ए. सरकार ने इसे 8 लाख रुपये तक बढ़ा दिया।

प्रोन्नति में आरक्षण

मंडल आयोग की संस्तुतियों में सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के सदस्यों को सभी प्रकार की सेवाओं में आरक्षण के साथ-साथ पदोन्नति में भी आरक्षण की सिफारिश की गयी थी। किंतु मंडल आयोग से संबंधित विवादों की सुनवाई करते हुए सर्वोध न्यायालय की नौ सदस्यीय खण्डपीठ ने अपने निर्णय में अभिनिर्धारित करते हुए कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण नहीं किया जा सकता है। खंडपीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन राज्यों में प्रोन्नति आरक्षण पहले से लागू है यहाँ यह व्यवस्था अगले पांच वर्ष तक ही लागू रहेगी। उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व भी कई वादों में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि प्रारम्भिक नियुक्तियों में आरक्षण लागू किया जा सकता है किंतु प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान नहीं लागू हो सकता है। पिछले वर्ष लोकसभा द्वारा पारित 82वें संविधान संशोधन अधिनियम के बाद सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय अप्रभावी हो गया। 82वें संविधान संशोधन अधिनियम की धारा 2 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 335 में निम्नलिखित परंतुक को अंतः स्थापित किया गया है-

‘इस अनुच्छेद की कोई बात अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के पक्ष में, संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं के किसी वर्ग या वर्गों में या पदों पर प्रोन्नति के मामले में आरक्षण के लिए, किसी परीक्षा में अर्हक अंकों में छूट देने या मूल्यांकन के मानकों को घटाने के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।’

अनुच्छेद 335 में इस परंतुक के जुड़ जाने के बाद अब इन वर्गों के सदस्यों को पदोन्नति में आरक्षण का लाभ भी मिलने लगा

अग्रनयन का सिद्धांत (Principle of carryforward)

मंडल आयोग की रिपोर्ट मे संस्तुति की गयी थी कि यदि सरकारी सेवा में 27 प्रतिशत के आरक्षण का फोटा किसी भी कारण से पूरा नहीं होता है तो इसे अगले वर्ष घोषित की गयी रिक्तियों में जोड़ा जायेगा। रिक्तियों में इस को को जोड़े जाने का कम तीन वर्ष तक लागू रखने की संस्तुति भी रिपोर्ट में की गयी थी। किंतु सर्वोच न्यायालय ने बाद की सुनवाई करते हुए इस अवधारणा को अमान्य करते हुए कहा कि यदि आरक्षित पदों को इसी वर्ष नहीं भरा जा सका है तो इसे अगले वर्ष की रिक्तियों में जोड़ा नहीं जायेगा। सर्वोच न्यायालय के इस निर्णय के प्रभाव को निरस्त करने के लिए संसद द्वारा 8वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया ।। इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 में खण्ड 4 (ख) अंतःस्थापित करते हुए प्रावधान किया गया है कि यदि इस प्रकार से आरक्षित पद नहीं भरे गए हैं तो उन्हें आगामी वर्ष होने वाली नियुक्तियों में आरक्षित पदों की 50 प्रतिशत की सीमा के अंतर्गत शामिल नहीं किया जायेगा। इस प्रकार न भरे गए आरक्षित पदों को अगले वर्ष भरा जा सकेगा।

आरक्षण की सीमा -

1963 में सर्वोच्च न्यायालय ने बालाजी बनाम मैसूर राज्य के बाद में यह प्रतिस्थापित किया था कि एक वर्ष में 50 प्रतिशत से अधिक स्थानों की पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित किया जाना अनुच्छेद 16(4) के विरुद्ध होगा। न्यायालय ने कहा था कि पिछड़ी जातियों के विकास के नाम पर राज्य के अन्य नागरिकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। मंडल आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का उल्लेख करते हुए कहा था कि वह 50 प्रतिशत की सीमा के कारण इन जातियों के लिए और आरक्षण की सिफारिश नहीं कर रहा है। उल्लेखनीय है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट के समय अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए 22 प्रतिशत आरक्षण लागू था। आयोग ने 27 प्रतिशत और आरक्षण करके इसे 49 प्रतिशत कर दिया था। वर्तमान समय में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत के अधीन है।