भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग और उनसे जुड़ी पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएं, 12 Jyotirlingas in India
सभी ज्योतिर्लिंग को भगवान शिव का एक अलग स्वरूप माना जाता है। आईए जानते हैं 12 ज्योतिर्लिंगों के बारे में तथा उनकी उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथाओं के बारे में –
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग के नाम (Names of 12 Jyotirlingas of Lord Shiva)
ज्योतिर्लिंग का अर्थ संस्कृत में ज्योति शब्द का अर्थ है प्रकाश या चमक और लिंगम या लिंग का अर्थ है चिन्ह या छवि। इस प्रकार ज्योतिर्लिंग का अर्थ हुआ भगवान शिव की उज्जवल छवि। ऐसा माना जाता है कि ज्योतिर्लिंग जिस- जिस स्थान पर प्रकट हुए वहां भगवान शिव स्वयं पृथ्वी पर प्रकट हुए थे। इसलिए सभी ज्योतिर्लिंग को भगवान शिव का एक अलग स्वरूप माना जाता है। आईए जानते हैं 12 ज्योतिर्लिंगों के बारे में तथा उनकी उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथाओं के बारे में –
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग (Somnath Jyotirlinga)
About Somnath Jyotirlinga: सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के गुजरात राज्य में स्थित है। Somnath Jyotirlinga को पृथ्वी का पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है जिसे भगवान चंद्रदेव ने स्वयं बनवाया था। शिव पुराण के अनुसार चंद्र देव महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे। चंद्रदेव का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियों से हुआ था। दक्ष ने अपनी 27 बेटियों का विवाह चंद्र देव से करते हुए एक वचन मांगा था। दक्ष ने चंद्र से अपनी सभी 27 पुत्रियों को समान रूप से प्रेम करने और उन सभी के साथ समान व्यवहार करने के लिए कहा लेकिन चंद्र को विवाह के बाद अपनी पत्नी रोहिणी से विशेष प्रेम हो गया।
वह अपना अधिकांश समय रोहिणी के साथ व्यतीत करते थे और अपनी अन्य पत्नियों को अनदेखा कर देते थे। रोहिणी के प्रति चंद्र का अधिक झुकाव देखकर दक्ष की 26 पुत्रियां अप्रसन्नहो गई। वह अपने पिता दक्ष के पास गई और उनसे सभी बात बताई।अपनी 26 पुत्रियों के साथ हुए अन्याय और पक्षपात को देखकर दक्ष क्रोधित हो गए। उन्होंने क्रोध में आकर चंद्रमा को श्राप दे दिया कि वह अपनी चमक और आभा को देंगे और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे। मरते हुए चंद्रमा को समझ में नहीं आया कि वह क्या करें उन्होंने दक्ष से अपना शाप वापस लेने की विनती की। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
शाप से मुक्ति पाने के लिए चंद्र देव ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने चंद्र को सलाह दी कि यदि वे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें और भगवान शिव को प्रसन्न कर लें तो वह इस शाप से मुक्त हो सकते हैं। चंद्र देव को उम्मीद की एक किरण मिली। चंद्रदेव प्रसिद्ध पवित्र भूमि प्रभास पाटन गए, जहां उन्होंने एक ज्योतिर्लिंग की स्थापना की और भगवान शिव से सच्चे मन से प्रार्थना की। चंद्र की भक्ति से भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट हुए और कहा कि मैं दक्ष के शाप को लौटा तो नहीं सकता लेकिन उसे कुछ कम अवश्य कर सकता हूं। शुक्ल पक्ष के 15 दिन में आपकी चमक बढ़ेगी, कृष्ण पक्ष में 15 दिन के लिए आपकी चमक कम हो जाएगी, पूर्णिमा के दिन आप संसार को प्रकाशित करेंगे लेकिन अमावस्या के दिन आप लुप्त हो जाएंगे।
चंद्र को अपनी अर्धचंद्र आकृति अभिशप्त लग रही थी जो उनकी कम हुई आभा की निरंतर याद दिलाती रहती। इसलिए भगवान शिव ने उन्हें अपने जटाओं में धारण किया और उन्हें सांत्वना दी। इस प्रकार भगवान शिव को चंद्रशेखर याचंद्रमा को अपने सिर पर धारण करने वाले के नाम से भी जाना जाने लगा। तभी से भगवान शिव सदैव ही वही निवास करने लगे। अतः मंदिर को सोमनाथ के नाम से जाना जाने लगा।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग (Mahakaleshwar Jyotirlinga)
About Mahakaleshwar Jyotirlinga: महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग को स्वयंभू माना जाता है अर्थात इसकी उत्पत्ति स्वयं हुई है। यह ज्योतिर्लिंग भारत के मध्य प्रदेश के प्राचीन शहर उज्जैन में पवित्र शिप्रा नदी के किनारे स्थित है। सभी पुरानी संरचना और उनसे जुड़ी कहानियों की तरह ही महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के पीछे भी कई किवनदंतियां हैं।
पुराणों के अनुसार उज्जैन शहर को अवंतिका कहा जाता था। यह उन प्राचीन शहरों में से एक था जहां छात्र पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए जाते थे। ऐसी मान्यता है कि उज्जैन के राजा चंद्रसेन भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। जब वे भगवान शिव की प्रार्थना कर रहे थे तब एक युवा लड़के शेखर ने उनके साथ प्रार्थना करने की इच्छा जताई। हालांकि उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी गई। उसे शहर के बाहरी इलाके में भेज दिया गया।
इसी समय के आसपास उज्जैन के प्रतिद्वंद्वी राजाओं ने राज्य पर हमला करने और उसके खजाने पर हमला करने का फैसला किया। यह सुनकर उस युवा शेखर ने शहर को बचाने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। यह खबर वृद्धि नामक एक पुजारी तक पहुंच गई। यह सुनकर वह भी अपने बेटों के साथ शिप्रा नदी के किनारे भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। इसी समय प्रतिद्वंदी राजाओं ने उज्जैन पर आक्रमण कर दिया और शक्तिशाली राक्षस दूषण, जिसे ब्रह्मा द्वारा अदृश्य होने का वर प्राप्त था, की सहायता से शहर लूट लिया और सभी शिव भक्तों पर हमला कर दिया।
अपने सभी भक्तों की प्रार्थना सुनकर शिवजी अपने महाकाल रूप में प्रकट हुए और राजा चंद्रसेन के शत्रु को पल भर में नष्ट कर दिया। अपने भक्त शेखर और वृद्धि के अनुरोध पर भगवान महाकाल उसी दिन से प्रसिद्ध उज्जैन मंदिर में रहते हैं। यह एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है जिसका मुख दक्षिण दिशा में है। इसलिए इन्हें दक्षिण मुखी भी कहा जाता है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग (Mallikarjuna Jyotirlinga)
About Mallikarjuna Jyotirlinga: मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग भारत के सबसे प्रमुख शिव मंदिरों में से एक है। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहा जाता है। यह तीर्थ स्थल आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। सभी ज्योतिर्लिंगों में से इस विशेष ज्योतिर्लिंग में भगवान शिव के साथ देवी पार्वती भी रहती हैं। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग को 52 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। शक्तिपीठ वह स्थान है जहां पर सती के शरीर के कटे हुए हिस्से पृथ्वी पर गिरे थे।मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से जुड़ी कई किंवदंतियां है।
शिव पुराण के कोटी रूद्र संहिता के अनुसार एक बार भगवान शिव और देवी पार्वती ने अपने पुत्र गणेश और कार्तिकेय का विवाह करने का फैसला किया लेकिन इन दोनों में से सबसे पहले किसका विवाह होगा इस बात को लेकर बहस छिड़ गई।
भगवान शिव ने सुझाव दिया कि दोनों में सबसे पहले जो इस पृथ्वी की परिक्रमा कर लेगा, उसी का विवाह सबसे पहले होगा। यह सुनते हैं कार्तिकेय मोर पर सवार होकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल पड़े। लेकिन भगवान गणेश ने शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और कहा कि उनके लिए माता-पिता ही उनकी दुनिया है और इस प्रकार गणेश का विवाह रिद्धि सिद्धि के साथ संपन्न हुआ। परंतु जब कार्तिकेय पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटे तो अपने साथ हुए अन्याय से दुखी होकर कैलाश छोड़कर क्रोंच पर्वत पर चले गए और कुमार ब्रह्माचारी का नाम धारण किया।
इस घटना से भगवान शिव और माता पार्वती बहुत दुखी हुए और उन्होंने कार्तिकेय से मिलने का निश्चय किया। जब कार्तिकेय को पता चला कि उनके माता-पिता आने वाले हैं तो वह दूसरी जगह चले गए। भगवान शिव और माता पार्वती जिस पर्वत पर अपने पुत्र की प्रतीक्षा की थी उस स्थान को श्री शैलम के नाम से जाना जाता है।
अपने पुत्र से परेशान होकर भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग का रूप धारण किया और वहीं रहने लगे जिसे फिर मल्लिकार्जुन के नाम से जाना जाने लगा। मल्लिका का अर्थ है पार्वती और अर्जुन का अर्थ है भगवान शिव। ऐसी मान्यता है की अमावस्या के दिन भगवान शिव कार्तिकेय से मिलने आते हैं और पूर्णिमा के दिन देवी पार्वती उनसे मिलने आती हैं।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग (Omkareshwar Jyotirlinga)
About Omkareshwar Jyotirlinga: ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में नर्मदा नदी के तट पर मांधाता या शिवपुरी नामक एक ओंकार के द्वीप में स्थित है। ओंकारेश्वर नाम से ही पता चलता है कि यह ओम ध्वनि के स्वामी हैं किंवदंतियों के अनुसार नारद जी के प्रभाव से विंध्याचल पर्वत को नियंत्रित करने वाले देवता विंध्या को मेरु पर्वत से ईर्ष्या होने लगी। विंध्य ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। वह वरदान में और अधिक विशाल बनना चाहता था। भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उनकी इच्छा पूरी की परंतु एक शर्त के साथ कि उनके बढ़े हुए आकार से तीर्थ यात्रियों को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। साथ ही भगवान शिव ने वहां एक ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। देवताओं और ऋषियों के अनुरोध पर भगवान शिव ने लिंग को दो भागों में विभाजित कर दिया एक ओमकारेश्वर और दूसरा ममलेश्वर। इसलिए भक्त जब भी मांधाता जाते हैं तो इन दोनों मंदिरों का दर्शन करते हैं। विंध्य पर्वत ने पहले तो तीर्थ यात्रियों को कोई परेशानी नहीं पहुंचाई लेकिन कुछ समय बाद वह आकर में विशाल होने लगा और तीर्थ यात्रियों के लिए परेशानी का कारण बनने लगा। लोगों ने मदद के लिए ऋषि अगस्त को बुलाया
ऋषि ने विंध्य पर्वत को आदेश दिया कि जब तक वह अपनी पत्नी के साथ वापस ना लौट आए वह और आगे ना बढ़े।
इसके अतिरिक्त एक कथा के अनुसार महाराज मांधाता ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए थे। इसलिए इस जगह का नाम मांधाता पड़ा।
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग (Bhimashankar Jyotirlinga)
About Bhimashankar Jyotirlinga: भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग पुणे से 110 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र में सहयाद्रि पर्वतमाला की पहाड़ियों पर स्थित है। यह वह स्थान है जहां से कृष्णा नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी भीमा नदी का उद्गम होता है। मराठा शैली का यह मंदिर काले पत्थरों से बना है। यहां हर कोई गर्भगृह में प्रवेश कर सकता है और ज्योतिर्लिंग को स्पर्श कर सकता है।
ऐसी मान्यता है कि सहयाद्रि पर्वत श्रृंखला के दक्षिणी जंगल में भीमा नामक एक असुर अपनी माता कर्कटी के साथ रहता था। वह रावण के छोटे भाई कुंभकरण का पुत्र था। जब उसे पता चला कि भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लेकर उसके पिता की हत्या कर दी है तो वह क्रोधित हो गया। उसने बदला लेने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की। बदले में ब्रह्मा जी ने उसे अपार शक्ति का वरदान दिया।
इस शक्ति का उपयोग उसने संसार को आतंकित करने के लिए किया। उसने भगवान शिव के अनन्य भक्त कमरूपेश्वर को बंदी बना लिया और कहा कि भगवान शिव की जगह उसकी पूजा करें। जब कमरूपेश्वर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो भीमा ने शिवलिंग को नष्ट करने के लिए अपनी तलवार उठा ली। इसी समय भगवान शिव प्रकट हुए। भगवान शिव ने भीमा को भस्म कर दिया। वह स्थान जहां भगवान शिव प्रकट हुए थे वहां अब शिवलिंग है।
एक अन्य किंवदंती के अनुसार त्रिपुरासुर राक्षस ने भगवान शिव को प्रसन्न करने और उनसे अमरता का वरदान मांगने के लिए भीमाशंकर जंगल में तपस्या की थी। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर इस शर्त के साथ अमरता प्रदान की कि वह अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों की मदद के लिए करेगा। त्रिपुरासुर इससे सहमत हो गया लेकिन समय के साथ वह अपना वचन भूल गया और मनुष्य और देवता दोनों को परेशान करने लगा। भगवान शिव ने माता पार्वती से उनकी मदद करने को कहा। इन दोनों ने अर्धनारीश्वर के रूप में त्रिपुरासुर का वध कर दिया।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग (Kedarnath Jyotirlinga)
About Kedarnath Jyotirlinga: यह मंदिर भारत के उत्तराखंड राज्य में मंदाकिनी नदी के पास गढ़वाल हिमालय श्रृंखला पर स्थित है। यह मंदिर समुद्र तट से लगभग 12000 फीट ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर साल में केवल 6 महीने के लिए खुलता है। कहा जाता है कि पवित्र केदारनाथ मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में हिंदू गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था। शंकराचार्य ने उस स्थान का पुनर्निर्माण किया जहां माना जाता है कि महाभारत में पांडवों ने वहां शिव मंदिर का निर्माण कराया था।
पौराणिक कथा के अनुसार पांडव अपने कौरव भाइयों को मारने के बाद अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए भगवान शिव से क्षमा मांगने जाना चाहते थे लेकिन भगवान शिव उनसे मिलना नहीं चाहते थे। इसलिए भगवान शिव गुप्तेश्वर में छुप गए जहां आज केदारनाथ का ज्योतिर्लिंग स्थित है।
पांडव और द्रोपती ने गुप्त काशी में एक बैल देखा जो अन्य बैलों से बहुत अनोखा था। पांडवों ने पहचान लिया कि वह कोई और नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव थे जो उनसे नंदी बैल का भेष बनाकर छिप रहे थे। भीम ने बैल को पकड़ने का प्रयास किया लेकिन असफल हुए। भीम ने बैल की पूंछ और पिछले पैर को खींचकर उसे जमीन से बाहर खींचने का प्रयास किया लेकिन भगवान शिव ने स्वयं को और गहराई में धकेल दिया और अलग-अलग स्थान पर केवल कुछ हिस्सों में ही प्रकट हुए।
केदारनाथ में उनके पीठ का ऊपरी हिस्सा प्रकट हुआ, तुंगनाथ में भुजाएं, मध्य महेश्वर में नाभि और पेट, रुद्रनाथ में चेहरा, कल्पेश्वर में बाल और सिर प्रकट हुआ। पांडवों ने शिव की पूजा के लिए इन पांचो स्थान पंच केदार पर मंदिर बनवाया जिससे वह अपने पापों से मुक्त हो गए और भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में इस पवित्र स्थान पर रहने का वचन दिया। यही कारण है कि केदारनाथ इतना प्रसिद्ध है।
भगवान शिव का यह ज्योतिर्लिंग इतना चमत्कारी है कि केदारनाथ में आया भयंकर प्रलय भी इसे डिगा नहीं पाया
2013 में जब बाढ़ का पानी पहाड़ से नीचे की ओर गिर रहा था तो इस पानी के साथ एक विशालकाय पत्थर लुढ़कते हुए नीचे आकर मंदिर के पास रुक गया जिस वजह से बाढ़ का पानी दो हिस्सों में बट गया और मंदिर को कुछ नहीं हुआ। इसलिए अब इस चमत्कारी शिला को भीम शिला के नाम से जाना जाता है।
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग (Kashi Vishwanath Jyotirlinga)
About Kashi Vishwanath Jyotirlinga: काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित है। वाराणसी भारत में सबसे लंबे समय तक रहने वाले शहरों में से एक है जिसे बनारस या काशी के नाम से भी जाना जाता है।यह भारत की सप्तपुरियों में से एक है। बनारस को एक ऐसी जगह के रूप में भी जाना जाता है जहां आयुर्वेद परंपरा के निर्माता पतंजलि रहते थे। बनारस बौद्ध धर्म के लिए भी प्रसिद्ध स्थल है क्योंकि बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था।
बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है। यह मोक्ष प्राप्त करने और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिए सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है। काशी विश्वनाथ एक ऐसा ज्योतिर्लिंग है जो पृथ्वी को तोड़कर आकाश तक चमका।ऐसा करके उसने अन्य सभी देवताओं पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। इस मंदिर में ज्योतिर्लिंग के साथ शक्तिपीठ भी है। इस मंदिर में शिव को विश्वेश्वर के नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ है ब्रह्मांड का शासक।
इस ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के बारे में शिव पुराण में वर्णित है कि एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा और सृष्टि के पालन कर्ता भगवान विष्णु के बीच अपनी सर्वोच्चता को लेकर बहस हुई। उनकी परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव प्रकाश के एक विशाल अंतहीन स्तंभ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। यह निर्धारित करने के लिए की कौन अधिक शक्तिशाली है। भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण कर नीचे की ओर जाने का प्रयास किया जबकि ब्रह्मा ने स्तंभ के शीर्ष तक पहुंचने के लिए हंस का वेश धारण किया।
लंबे समय तक स्तंभ के अंत को खोजने की कोशिश के बाद ब्रह्मा ने अहंकार के कारण झूठ बोला। उन्होंने कहा कि स्तंभ का अंत मिल गया है और साक्ष्य के रूप में केतकी का फूल दिखाया, जबकि भगवान विष्णु ने ईमानदारी से कहा कि उन्हें इसका अंत नहीं मिल सका और उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली। तब भगवान शिव ने क्रोधित होकर भैरव का रूप धारण कर ब्रह्मा के पांचवें सर को काट दिया। साथ ही ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि उनकी पूजा नहीं की जाएगी जबकि भगवान विष्णु को कहा कि उनकी ईमानदारी के लिए अनंत काल तक उनके अपने मंदिरों में शिव के समान पूजा जाएगा। ऐसी मान्यता है कि पृथ्वी के जिस स्थान पर प्रकाश का यह स्तंभ गिरा था वही जगह आगे चलकर काशी विश्वनाथ कहलाई।
बैजनाथ ज्योतिर्लिंग (Baijnath Jyotirlinga)
About Baijnath Jyotirlinga: बैजनाथ ज्योतिर्लिंग झारखंड राज्य के देवघर में स्थित है।इस ज्योतिर्लिंग को सिद्ध पीठ भी कहा गया है, जहां भक्तों की मनोकामना जल्द पूरी होती है। इसीलिए इस ज्योतिर्लिंग को कामना लिंग के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार रावण शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय क्षेत्र में तपस्या कर रहा था। उसने अपना 9 सिर शिव को समर्पित कर दिया जैसे ही वह अपने 10 वें सिर को चढ़ाने चला भगवान शिव प्रकट हो गए और रावण से वरदान मांगने को कहा
रावण ने कामना लिंग को लंका दीप पर ले जाने के लिए कहा और शिव को कैलाश से लेकर ले जाने की इच्छा व्यक्त की। भगवान शिव रावण के अनुरोध पर एक शर्त पर सहमत हुए। उन्होंने कहा कि लिंग को रास्ते में कहीं भी रखा गया तो यह देवताओं का स्थाई निवास बन जाएगा और इसे कभी भी स्थानांतरित नहीं किया जा सकेगा। शिवजी के कैलाश से चले जाने की बात सुनकर सभी देवी देवता चिंतित हो गए उन्होंने भगवान विष्णु से समाधान मांगा।
भगवान विष्णु ने जल देवता वरुण देव को रावण के पेट में प्रवेश करने को कहा इसके परिणाम स्वरूप जब रावण ने लिंग के साथ लंका के लिए प्रस्थान किया तो देवघर के आसपास के क्षेत्र में उसे लघु शंका महसूस हुई। कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने बैजनाथ नाम के एक चरवाहे का रूप लिया जब रावण लघु शंका करने गया तो लिंग को इस चरवाहे के हाथ में पकड़ा दिया। वरुण देव की उपस्थिति के कारण रावण को लघु शंका करने में बहुत लंबा समय लग गया। काफी देर तक रावण की प्रतीक्षा करने पर बैजनाथ क्रोधित हो गया फिर उसने लिंग को जमीन पर रख दिया और वहां से चला गया। रावण ने वापस आकर लिंग को उठाने का प्रयास किया लेकिन असफल रहा। जाने से पहले रावण ने लिंग पर अपना अंगूठा दबाया जिससे शिवलिंग आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गया। तब शिवलिंग की ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओं द्वारा पूजा की गई। और उन्होंने बैद्यनाथ मंदिर का निर्माण कराया। तब से महादेव कामना लिंग के अवतार के रूप में देवघर में निवास करते हैं।
त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग( Trimbakeshwar Jyotirlinga)
About Trimbakeshwar Jyotirlinga: यह ज्योतिर्लिंग ब्रह्मगिरि नामक पर्वत पर स्थित है। यही से गोदावरी नदी शुरू होती है। इस ज्योतिर्लिंग की सबसे बड़ी खासियत है कि यहां पर मौजूद तीन छोटे-छोटे लिंग हैं जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी का प्रतीक माना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा देव ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मागिरी पर्वत पर तपस्या की थी। तभी से इस पर्वत को ब्रह्मगिरी पर्वत के नाम से जाना जाता है।
ब्रह्मागिरी पर्वत के बीच एक आश्रम हुआ करता था, जहां महान ऋषि गौतम रहते थे। एक बार वहां भारी सूखा और अकाल के कारण वहां से सभी मनुष्यों के साथ-साथ सभी जीव जंतु भी भागने लगे, जिसे देखकर ऋषि गौतम ने जल के देवता वरुण देव से प्रार्थना की।उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वरुण देव ने उन्हें ऐसा कुंड भेंट किया जिसमें पानी कभी खत्म नहीं होता था। गौतम ऋषि ने उस पानी का उपयोग सभी प्राणियों की मदद करने के लिए किया। ऋषि गौतम को सभी का प्यार मिला। कई अन्य ऋषि भी काल के इस समय में यहां आकर रुके थे। इसलिए ऋषि गौतम को अधिक पुण्य प्राप्त हुआ लेकिन जल्द ही आश्रम के
दूसरे ऋषियों को इस बात से ईर्ष्या होने लगी और उन्होंने गौतम ऋषि को नीचा दिखाने के लिए भगवान गणेश की तपस्या की। जैसे ही गणेश जी प्रकट हुए सभी ऋषियों ने गौतम ऋषि को नीचा दिखाने का आग्रह किया। इस पर गणेश जी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया परंतु जब सभी ऋषि नहीं माने तो गणेश जी ने विवश होकर एक कमजोर गाय का रूप धारण किया और ऋषि गौतम के आश्रम में पहुंचे। गाय की ऐसी हालत देखकर गाय को ऋषि गौतम ने चारा दिया लेकिन जैसे ही गाय ने चारा को खाया, गाय की मृत्यु हो गई। जिसके बाद सभी ऋषि वहां आ पहुंचे और उन्होंने गौहत्या का पाप ऋषि गौतम पर लगा दिया। गौतम ऋषि ने गौ हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान शिव की इसी पहाड़ी पर तपस्या की थी।
भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गौतम ऋषि से पूछा कि वह क्या चाहते हैं। गौतम ऋषि हत्या के पाप से मुक्ति के लिए गंगाजल में स्नान करना चाहते थे। भगवान शिव ने गौतम ऋषि की मनोकामना पूरी की और मां गंगा का जल पर्वत पर भेज दिया लेकिन गंगा नदी वहां से बार-बार लुप्त हो जाती थी। क्योंकि गंगा माता वहां अकेले नहीं जाना चाहती थी इसीलिए मां गंगा ने भगवान शिव से त्रयंबकेश्वर में उनके साथ रहने के लिए प्रार्थना की और भगवान शिव ने गंगा के अनुरोध को स्वीकार कर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। जिसे आज श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है।
नागेश्वर ज्योर्तिलिंग (Nageshwara Jyotirlinga)
About Nageshwara Jyotirlinga: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग एक मंदिर और तीर्थ स्थल है जो शिव को समर्पित है और बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह औंधा ,नागनाथ, महाराष्ट्र में स्थित है। शिव पुराण के अनुसार नागेश्वर ज्योतिर्लिंग दारूका वन में है जो भारत के में एक जंगल का प्राचीन नाम है। इस ज्योतिर्लिंग के बारे में शिव पुराण में एक कथा है। दारूका नाम के एक राक्षस ने सुप्रिया नामक एक शिव भक्त पर हमला किया और उसे अपने शहर दारुका वन में कई अन्य लोगों के साथ बंदी बना लिया, जो समुद्र के नीचे एक शहर था ,जिसमें समुद्री सांप और राक्षस रहते थे।
सुप्रिय के उपदेश पर कैदियों ने शिव के पवित्र मंत्र का जाप शुरू कर दिया। उसके तुरंत बाद शिव प्रकट हुए और राक्षस को परास्त किया और भगवान शिव ज्योति लिंग के रूप में वही स्थापित हो गए। भगवान शिव ने नागेश्वर नाम से ज्योतिर्लिंग का रूप धारण किया था जबकि देवी पार्वती कनकेश्वरी के नाम से जानी गई। शिव ने यहां घोषणा की की जो उनकी पूजा करेंगे उन लोगों को सही रास्ता दिखाएंगे
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग (Rameshwaram Jyotirlinga)
About Rameshwaram Jyotirlinga: रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु की रामनाथपुरम जिले में एक शहर रामेश्वरम में स्थित है। इस मंदिर तक समुद्र के ऊपर पंबल पुल के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। इस ज्योतिर्लिंग को विश्व के सबसे पुराने ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का उल्लेख रामायण में मिलता है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान राम ने रावण को मारने के बाद ब्रह्म हत्या के पाप से बचने के लिए शिवजी की पूजा करने के लिए स्थापित किया था। मान्यता है कि आज के समय में जो रामेश्वरम मंदिर में पानी के 24 कुंड है उन्हें भगवान राम ने अपनी वानर सेवा की प्यास बुझाने के लिए अपने तीर से बनाया था।
1000 फीट लंबे और 700 फीट चौड़े इस मंदिर की गलियारों को विश्व का सबसे बड़ा गलियारा कहा जाता है जो की 12012 स्तंभों पर टिका हुआ है। पुराणों के अनुसार भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ यहां लिंगम स्थापित किया और पूजा की। रावण को मारते समय श्रीराम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। शिव की पूजा करने के लिए श्री राम जी ने शिव के अवतार हनुमान जी को हिमालय से ज्योतिर्लिंग लाने का आदेश दिया पर क्योंकि लिंगम को लाने में अधिक समय लगा इसलिए माता सीता ने पास के समुद्रतट की रेत से एक लिंगम बनाया जिसे आज भी मंदिर के गर्भगृह में स्थापित माना जाता है।
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग (Ghushmeshwar Jyotirlinga)
About Ghushmeshwar Jyotirlinga: शिवजी के 12 ज्योतिर्लिंगों में से Ghushmeshwar Jyotirlinga आखिरी ज्योतिर्लिंग है। यह महाराष्ट्र के दौलताबाद से 12 मील दूर बेरुल गांव के पास स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग के बारे में पुराणों में वर्णित है कि एक अत्यंत तेजस्वी ब्राह्मण सुधर्मा दक्षिण देश में देवगिरी पर्वत के पास रहता था। इसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। यह दोनों आपस में बेहद प्रेम करते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष गणना से यह पता चला कि सुदेहा गर्भवती नहीं हो सकती है। लेकिन फिर भी वह संतान चाहती थी।
सुदेहा ने अपने पति सुधर्मा से कहा कि वह उसकी छोटी बहन से दूसरा विवाह कर ले। सुधर्मा ने पहले तो अपनी पत्नी की बात नहीं मानी लेकिन बार-बार पत्नी की जिद के आगे सुधर्मा विवश हो गया। सुधर्मा ने अपनी पत्नी की छोटी बहन घुष्मा से विवाह कर लिया। घुश्मा अत्यंत विनम्र और सदाचारिणी स्त्री थी। साथ ही शिव शंकर की परम भक्त थी। घुश्मा प्रतिदिन 101 पार्थिव शिवलिंग बनती थी और पूरी श्रद्धा से उनका पूजन करती थी। शिवजी की कृपा से कुछ ही समय बाद एक बालक ने उनके घर में जन्म लिया। दोनों बहनें बहुत खुश थीं लेकिन सुदेहा के मन में एक गलत विचार आ गया। उसने सोचा कि इस घर में सब तो घुश्मा का ही है, मेरा कुछ भी नहीं।
इस बात को सुदेहा ने इतना सोचा कि यह बात उसकी मन में घर कर गई। सुदेहा ने सोचा संतान भी उसकी है और उसके पति पर भी घुश्मा का ही अधिकार है। इन्हीं कुविचारों के कारण एक रात सुदेहा ने घुष्मा के युवा पुत्र को मार डाला औरउसके शव को तालाब में फेंक दिया। सुबह होने पर पूरे घर में कोहराम मच गया। घुश्मा विलाप करने लगी। लेकिन घुश्मा ने भगवान शिव में अपनी आस्था नहीं छोड़ी। उसने प्रत्येक दिन की तरह ही इस दिन भी शिव की भक्ति की। पूजा समाप्त होने के बाद जब वह पार्थिव शिवलिंग को प्रवाहित करने तालाब पर गई तो उसका पुत्र तालाब से निकलकर आता हुआ दिखाई पड़ा।
बाहर आकर उसका पुत्र घुश्मा के चरणों में गिर पड़ा। तभी भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने घुश्मा से वर मांगने को कहा। शिवाजी सुदेह के इस कृत्य से क्रोधित होकर अपना त्रिशूल चलाने ही वाले थे कि घुश्मा हाथ जोड़कर शिवजी से विनती करने लगी कि उसकी बहन को क्षमा कर दें। घुश्मा ने शिव जी से प्रार्थना की की लोक कल्याण के लिए वह इसी स्थान पर सदैव के लिए स्थापित हो जाएं। शिव जी घुश्मा की दोनों बातें मानकर ज्योतिर्लिंग (Jyotirlinga) के रूप में प्रकट होकर वही निवास करने लगे। शिव भक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण ही इनका नाम घुश्मेश्वर महादेव पड़ा। इन्हें घृष्णेश्वर (Grishneshwar) के नाम से भी जाना जाता है।
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