November 23, 2024
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Rani Lakshmibai Jayanti 2023: युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर विशेष

Rani Lakshmibai Jayanti 2023: त्याग और बलिदान की भारत भूमि में ऐसे वीरों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखी। यहां की स्त्रियां भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं। उन्हीं में से एक नाम है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का। लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी। उन्होंने न केवल भारत अपितु विश्व की संपूर्ण नारी जाति को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की अनुपम गाथा है।

Rani Lakshmibai Jayanti 2023

त्याग और बलिदान की भारत भूमि में ऐसे वीरों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखी। यहां की स्त्रियां भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं। उन्हीं में से एक नाम है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का। लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी। उन्होंने न केवल भारत अपितु विश्व की संपूर्ण नारी जाति को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की अनुपम गाथा है।

19 नवंबर को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई(Jhansi ki Rani Laxmi Bai)जयंती मनाई जाती है। उनकी जयंती को ‘बलिदान दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है। भारत को गुलामी से आजाद कराने के लिए 1857 में किए गए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरि माना जाता है। 1857 में भारत के स्वतंत्रता संग्राम का उन्होंने सूत्रपात किया था और अपने शौर्य और वीरता से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे।

आईए जानते हैं इस महान वीरांगना के जीवन के विषय में-

जीवन परिचय

रानी लक्ष्मी बाई (Rani Laxmi Bai)का जन्म 19 नवंबर 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र अस्सीघाट, वाराणसी में हुआ था। मोरोपंत तांबे इनके पिता और भागीरथी बाई माता थी। रानी लक्ष्मीबाई पांच वर्ष की थीं तभी इनकी मां का निधन हो गया था। लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ था परंतु प्यार से उन्हें ‘मनु’ पुकारा जाता था। उनके पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। अपनी मां की मृत्यु के पश्चात वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। घर में मनु की देखभाल के लिए कोई न होने के कारण मोरोपंत मनु को बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहां चंचल एवं सुंदर मनु सबकी चाहेती बन गई थी। बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाते थे।

लक्ष्मीबाई की शिक्षा

मनु की शिक्षा बाजीराव के महल में ही संपन्न हुई। मनु बाजीराव के बच्चों के साथ ही शिक्षा ग्रहण करती थी। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से पौराणिक वीर गाथाएं सुनी थीं। वीरों के लक्षणों और उदात्त गुणों को उन्होंने अपने हृदय में संजोया।7 साल की उम्र में ही लक्ष्मी बाई ने घुड़सवारी और तलवार चलाना सीखा और धनुर्विद्या में निपुण हुई। उनके अंदर बालको से भी अधिक सामर्थ्य था। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे। इस प्रकार छोटी सी उम्र में ही मनु अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई।

रानी लक्ष्मी बाई का विवाह

मनु का विवाह 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूमधाम से संपन्न हुआ। विवाहोंपरांत मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे। इस प्रकार काशी की कन्या झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। संपूर्ण झांसी आनंदित हो उठी किंतु यह आनंद अल्पकालिक था। कुछ ही महीने बाद गंभीर रूप से बीमार होने के कारण 4 माह की उम्र में ही बालक की मृत्यु हो गई। झांसी में शोक की लहर दौड़ गई। 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। इस दौरान दरबारियो ने राजा को पुत्र गोद लेने की सलाह दी। रानी लक्ष्मीबाई ने 5 वर्ष के एक बालक को गोद लेकर उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के दूसरे ही दिन गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। गंगाधर राव की मृत्यु के बाद रानी लक्ष्मीबाई अकेली पड़ गई किंतु अपनी सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसीलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गई थी।

झांसी का युद्ध

भारत के बड़े भू- भाग पर उस समय अंग्रेजों का शासन था६ और वे झांसी को भी अपने अधीन करना चाहते थे। राजा गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों को लगा कि यह उपयुक्त अवसर है। अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मी बाई को स्त्री समझ कर भूल की। उन्हें लगा कि स्त्री होने के कारण लक्ष्मीबाई उनका प्रतिकार नहीं करेंगी।अंग्रेजों ने रानी के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और रानी को पत्र भेजा कि राजा के कोई पुत्र नहीं होने के कारण झांसी पर अंग्रेजों का अधिकार होगा।

“मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी”

अंग्रेजों द्वारा झांसी पर अधिकार की बात सुनकर रानी लक्ष्मीबाई क्रोधित हो उठीं और घोषणा की कि “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी” उनकी इस घोषणा से अंग्रेज तिलमिला उठे और झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने युद्ध की तैयारी कर ली और किले की प्राचीन पर तोपे रखवाई। उन्होंने महल के सोने व चांदी के समान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। रानी के किले की प्राचीर पर कड़क, बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपे प्रमुख थीं।रानी ने किले की मजबूती के लिए किलाबंदी की। गौस खान तथा खुदाबख्स रानी के कुशल एवं विश्वासपात्र तोपची थे। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया।

 अंग्रेजों ने किले को घेर कर आक्रमण कर दिया। 8 दिनों तक गोले बरसाने के बाद भी अंग्रेज किला नहीं जीत सके क्योंकि रानी और प्रजा ने प्रतिज्ञा ली थी की अंतिम सांस तक किले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने कूटनीति का प्रयोग किया क्योंकि सैन्य बल से किला जीतना संभव नहीं था। ह्यूरोज ने झांसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया और अंग्रेजी सेना किले में घुस गई। अंग्रेजों ने किले में लूटपाट और हिंसा प्रारंभ कर दी तब रानी घोड़े पर सवार होकर हाथ में नंगी  तलवार और पीठ पर पुत्र को बांधे हुए रणचंडी का रूप धारण कर शत्रुओं का संघार करने लगी, किंतु अंग्रेजों की तुलना में झांसी की सेना छोटी थी। रानी जब अंग्रेजों से घिरने लगी तो कुछ विश्वास पत्रों की सलाह पर वह कालपी चली गई।

कालपी का युद्ध

रानी लक्ष्मी बाई रात में अपने बेटे दामोदर को पीठ पर बांधकर 200 भरोसेमंद घुड़सवारों की टोली के साथ जय शंकर का नारा लगाते हुए अपने किले से निकल गई। 24 घंटे लगातार सवारी करके 102 मील की दूरी तय करने के पश्चात रानी कालपी पहुंची। वहां के पेशवा ने रानी की मदद का फैसला किया और रानी को उनकी आवश्यकता के अनुसार अपनी सेना की टुकड़ियां प्रदान की। सर ह्यूरोज ने 22 मई को कालपी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने तलवार लेकर अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया। उनके हमले ने ब्रिटिश सेना को परास्त कर दिया। रानी के हमले से परेशान सर ह्यूरोज ने अपनी आरक्षित ऊंट सेना को युद्ध के मैदान में उतार दिया। अंग्रेजों द्वारा सेना के नए सुदृढ़ीकरण से क्रांतिकारीयों का उत्साह धीमा पड़ गया और 24 मई को कालपी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

 पराजित होने के पश्चात पेशवा, बांदा के नवाब तात्या टोपे, झांसी की रानी और सभी सरदार गोपालपुर में एकत्र हुए। लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर कब्जा करने का सुझाव दिया। ग्वालियर का शासक शिंदे ब्रिटिश सरकार समर्थक था। रानी ने ग्वालियर पर विजय प्राप्त कर उसे पेशवा को सौंप दिया।

  ग्वालियर की हार के बारे में सुनकर सर ह्यूरोज ने सोचा यदि समय बर्बाद किया गया तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। अतः उसने ग्वालियर पर धावा बोल दिया। लक्ष्मीबाई और पेशवा ने अंग्रेजों से लड़ने का फैसला किया। ग्वालियर के पूर्वी हिस्से की सुरक्षा की जिम्मेदारी रानी ने संभाली। लक्ष्मीबाई की अभूतपूर्व वीरता ने इस प्रकार से सेना को प्रेरित किया कि उनकी दासियां भी पुरुषों की वर्दी पहनकर युद्ध मैदान में उतर गई। लक्ष्मीबाई की वरता ने ब्रिटिश सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया।

 अंग्रेजों ने 18 जून को ग्वालियर को चारों ओर से घेर लिया। रानी ने आत्मसमर्पण के बजाय दुश्मन के मोर्चे को तोड़कर बाहर निकलने का फैसला लिया, लेकिन सैन्य मोर्चा तोड़ते समय वह अपने “राज रतन” घोड़े पर सवार नहीं थीं।रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया पर दुर्भाग्य से मार्ग में एकनाला आ गया जिसे वह नया घोड़ा पर ना कर सका। तभी अंग्रेेज घुड़सवारों ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आंख बाहर निकल आई। उसी समय अंग्रेज सैनिक ने उनके हृदय पर वार कर दिया। अत्यंत घायल होने पर भी रानी ने हार नहीं मानी और तलवार चलती रहीं।उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों को मौत के घाट उतार दिया फिर वह स्वयं भूमि पर गिर पड़ीं।उनका रौद्र रूप देखकर अंग्रेजी सिपाही भाग खड़े हुए। स्वामी भक्त रामराव देशमुख ने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुंचाया।रानी ने पीड़ा से व्याकुल होकर जल मांगा।

रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु

रानी लक्ष्मीबाई को असहनीय वेदना हो रही थी परंतु मुख मंडल पर तेज चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वह तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बंद हो गए। 17 जून 1858 को यह ज्योति अमर हो गई। 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गई। गंगादास की कुटिया में उनकी चिता लगाई गई और पुत्र दामोदर राव ने उन्हें मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। महारानी लक्ष्मीबाई अमर हो गईं।रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर सर ह्यूरोज भी यह कहने को विवश हो गया कि –
“भारतीय क्रांतिकारियों में रानी लक्ष्मीबाई अकेली मर्द थी”

  1857 के विद्रोह में सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर वीरांगना थी। उनकी मृत्यु ने मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ तोड़ दी।

 रानी लक्ष्मी बाई का जीवन भारत के युवाओं को सदैव प्रेरित करता रहेगा। यह एक ऐसी वीरांगना थी जिन्होंने 23 वर्ष की अल्पायु में युद्ध में प्राणों की आहुति देकर इतिहास में स्वयं को अमर कर गई। युद्ध लड़ते समय अपने पुत्र को पीठ पर बांधने वाली ऐसी असाधारण महिला विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलेगी। उनकी वीरता पूर्ण मृत्यु प्रथम विश्व युद्ध में 'गदर पार्टी' से जुड़े देशभक्त सहित भगत सिंह के संगठन और वीर सावरकर से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक सभी क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी। रानी लक्ष्मी बाई के वीरता के सम्मान में कई वीरतापूर्ण कविताएं रची गई हैं।

सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में लिखा है-

 “सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
 बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी
 गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
 चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी
 बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
 खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।”