December 29, 2024
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Naga Sadhus Secrets: महाकुंभ में ही क्यों आते हैं नागा संन्यासी, कैसा है नागा संन्यासियों का रहस्यलोक?

Naga Sadhus: महाकुंभ 2025 में नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया, उनकी परंपराएं, अनुष्ठान और आध्यात्मिक जीवन को जानिए। उनके रहस्यलोक, साधना और ऐतिहासिक महत्व को समझें।

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Naga Sadhu Secrets: महाकुंभ में ही क्यों आते हैं नागा संन्यासी, कैसा है नागा संन्यासियों का रहस्यलोक?

Naga Sadhu, Mahakumbh 2025: महाकुंभ 2025 के लिए जूना अखाड़े और आवाहन अखाड़े की पेशवाई हो चुकी है। वही 26 दिसंबर को अग्नि अखाड़े की भी पेशवाई हो गई। कई अखाड़े महाकुंभ मेले में प्रवेश कर चुके हैं और कई पहुंचने वाले हैं लेकिन सबसे अधिक चर्चा महाकुंभ में नागा संन्यासियों की होती है। हिमालय की बफीर्ली कंदराओं में तपस्या करने वाले नागा साधु 11 साल 11 महीने बाद केवल महाकुंभ में ही दिखाई देते हैं।

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हिमालय की बफीर्ली कंदराओं से नागा संन्यासियों की टोलियां निकल कर तीर्थराज प्रयागराज पहुंच रही हैं। नागा सन्यासियों की तलवारबाजी, घुड़सवारी और युद्ध कला देखकर हर हिंदू अहलादित और गौरवान्वित होता है।नागा संन्यासियों को सनातन का ट्रेंड कमांडो भी कहा जाता है। जब – जब सनातन धर्म पर संकट आया तब – तब नागा संन्यासियों ने अपने रहस्य लोक से बाहर निकलकर सनातन धर्म की रक्षा की। नागा साधु युद्ध में पारंगत होते हैं।

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प्रत्येक 12 वर्ष बाद नागा साधु की रहस्यमई दुनिया सजती है लाखों नागा सन्यासी 45 दिनों तक तीर्थराज प्रयाग में धूनी रमाते हैं। महाकुंभ में पहली डुबकी नागा साधु ही लगाते हैं। 14 दिसंबर को जूना अखाड़ा के नागा सन्यासियों की टोली प्रयाग पहुंची। 22 दिसंबर को आवाहन अखाड़ा के नागा सन्यासी पहुंचे और 26 दिसंबर को अग्नि अखाड़ा के नागा साधु पहुंचे। महाकुंभ में लाखों की संख्या में नागा सन्यासी आते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि नागा सन्यासी कहां से आते हैं और महाकुंभ के बाद कहां जाते हैं? नागा संन्यासी आते हुए तो दिखते हैं लेकिन कुंभ समाप्त होने पर उन्हें जाते हुए कोई क्यों नहीं देख पाता? कैसी है नागा संन्यासियों की रहस्यमई दुनिया? आईए जानते हैं-

नागा संन्यासियों को क्यों कहा जाता नागा है? क्या है नागा का अर्थ?

निर्वस्त्र रहने की वजह से उन्हें नागा कहा जाता है ऐसा नहीं है। यह सत्य नहीं है। संस्कृत में नागा का अर्थ पहाड़ होता है। नागा साधु अपने जीवन का अधिकतम समय पहाड़ों में एकांतवास में बिताते हैं। इसलिए उन्हें नागा कहा जाता है। गुजरात में कच्छी भाषा में नागा का अर्थ होता है लड़ाकू योद्धा। नागा भले ही युद्ध नहीं करते लेकिन नागा भी कुशल योद्धा होते हैं। नागा सन्यासी को जब दीक्षा दी जाती है तो शास्त्र के साथ शस्त्र चलाने की दीक्षा भी दी जाती है। नागा साधु दो प्रकार के होते हैं

  1. दिगंबर नागा साधु जो लंगोट धारण करते हैं।
  2. श्री दिगंबर नागा साधु जो निर्वस्त्र रहते हैं।

कैसे बनते हैं साधु से नागा संन्यासी ?

नागा संन्यासी बनने के लिए एक साधु को 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करनी पड़ती है। प्रत्येक साधु नागा संन्यासी नहीं बन सकता। नागा सन्यासी के जीवन का प्रारंभ हीं अंत से होता है। नागा सन्यासी बनने से पहले 14 पीढ़ियों का अंत फिर परिवार का अंत और आखिर में अपना अंत।

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  • साधु से नागा सन्यासी बनने के पहले चरण में नागा साधुओं को पहले अपने घर से भिक्षा लानी होती है।
  • भिक्षा सिर्फ माता-पिता से ही मिलनी चाहिए इसमें भी एक शर्त है की माता-पिता यह न जान पाए की भिक्षा मांगने वाला साधु उनकी ही संतान है।
  • इसके बाद पवित्र नदी के किनारे 14 पीढ़ियों का पिंडदान किया जाता है।
  • 14 पीढ़ियों का पिंडदान करने के बाद जीवित या मृत माता-पिता का पिंडदान करना होता है।
  • और आखिरी चरण में खुद का पिंडदान साधु करते हैं।

कुंभ में खुद का पिंडदान करने के बाद जब साधु पहली डुबकी लगाता है तो मान लिया जाता है कि उसके सारे सांसारिक रिश्ते दुनिया से खत्म हो चुके हैं। सनातन धर्म में जीवित व्यक्ति का पिंडदान नहीं किया जाता लेकिन नागा संन्यासी न सिर्फ अपने परिवार वालों का बल्कि खुद का भी पिंडदान पहले कर देता है। इसके बाद नागा साधु की कठिन साधना शुरू होती है।

कहां होती है नागा सन्यासियों की साधना ?

नागा सन्यासियों की साधना गुरु की देखरेख में हिमालय की कंदराओं में होती है। नागा संन्यासी बर्फीली गुफाओं में साधना करते हैं। बर्फीले पानी में स्नान करते हैं। खाने में केवल कंदमूल और फल लेते हैं। नदी का पानी पीते हैं और वस्त्रधारण नहीं करते। वस्त्र की जगह भभूत लगाते हैं। कठिन तपस्या से अपने शरीर को ऐसा बना लेते हैं कि उन्हें सर्दी गर्मी का कोई असर नहीं पड़ता। भगवान शिव की कठिन साधना से वे अलौकिक शक्ति प्राप्त करते हैं और उनके शरीर में असीम ऊर्जा का संचार होता है। कुछ नागा सन्यासी घने जंगलों में और कुछ गुरु की देखरेख में मठों में भी साधना करते हैं।

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कब शुरू हुई नागा संन्यासी बनने की परंपरा ?

आठवीं शताब्दी में सनातन धर्म की रक्षा के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने नागा संन्यासियों की परंपरा शुरू की। पहले उन्हें चार मठों में दीक्षा दी जाती थी। बाद में 13 अखाड़ों में दीक्षा दी जाने लगी। नागा संन्यासी सिर्फ युद्ध लड़कर धर्म और धर्मस्थलों की रक्षा नहीं करते थे, उन्हें धर्म ग्रंथ भी कंठस्थ रहते थे, जो नई पांडुलिपि बनाने में मदद करते थे। मान्यता यह भी है कि नागा संन्यासियों का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इसकी शुरुआत महर्षि वेदव्यास ने की थी। शास्त्रों के प्रचार के लिए नागा संन्यासी नगर- नगर घूमते थे और वनों में रात्रि विश्राम करते थे।

क्या दलित साधु और महिला भी नागा संन्यासी बन सकती हैं ?

सनातन की नागा परंपरा में जाति और महिला, पुरुष का कोई बंधन नहीं है। किसी भी जाति का सन्यासी 12 साल की कठिन तपस्या के बाद नागा साधु बनने का अधिकार पा सकता है। महिलाएं भी नागा संन्यासी बन सकती हैं। महिला नागा संन्यासियों को भी 12 वर्ष की दीक्षा से गुजरना होता है। उन्हें भी अपने परिवार और स्वयं का पिंडदान करना होता है। औरतें नागा संन्यासीबनने के बाद भगवा वस्त्र धारण करती हैं।

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किसी महिला को नागा संन्यासी बनने से पहले उनके पूरे जीवन की अखाड़ों में जांच होती है। उन्हें 12 वर्ष के कठिन ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इस परीक्षा में पास होने के बाद किसी महिला साधु को नागा सन्यासी का दर्जा मिलता है। महिला नागा संन्यासी को माई संन्यासी कहा जाता है। महिला नागा संन्यासी भी शास्त्र और शस्त्र दोनों में निपुण होती हैं। महिला सन्यासी भी धर्म की रक्षा के लिए पुरुष नागा संन्यासी की तरह सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहती हैं।

क्या नागा सन्यासी युद्ध लड़ने कहीं भी जा सकते हैं ?

नागा संन्यासी किसी भी युद्ध में लड़ने के लिए नहीं जाते परंतु जब सनातन धर्म की रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आता तो धर्म रक्षा का अंतिम युद्ध लड़ने नागा संन्यासी आते हैं। नागा संन्यासी धर्म पर हमला होने पर जान देने पर भी नहीं हिचकते और जान लेने से भी नहीं डरते।

महाकुंभ में ही क्यों आते हैं नागा सन्यासी ?

प्रत्येक 12 वर्ष पर जब भगवान बृहस्पति वृष राशि में आते हैं और माघ मास की अमावस्या को सूर्य चंद्रमा का मकर राशि में मिलन होता है तो पानी में पड़ने वाला प्रकाश आरोग्यता प्रदान करता है। प्रयागराज में गंगा जमुना और अदृश्य सरस्वती इन तीन नदियों का संगम होता है, जहां महाकुंभ में स्नान करना सबसे पवित्र माना जाता है। इसलिए जब-जब प्रयागराज में महाकुंभ लगता है नागा संन्यासी कंदराओं से निकलकर प्रयागराज के संगम तट पर पहुंचते हैं। महाकुंभ में पहली डुबकी नागा संन्यासी ही लगाते हैं और उसके बाद ही कोई दूसरा व्यक्ति डुबकी लगा सकता है।

कैसे नियंत्रित किया जाता है नागा संन्यासियों को ?

महाकुंभ मेले में आने वाले नागा संन्यासियों को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद नियंत्रित करती है, जिसका गठन 1954 के कुंभ मेले में हुआ था। सनातन धर्म से जुड़े कुल 13 अखाड़े हैं-

  1. निरंजनी अखाड़ा
  2. जूना अखाड़ा
  3. महानिर्वाणी अखाड़ा
  4. अटल अखाड़ा
  5. आवाहन अखाड़ा
  6. आनंद अखाड़ा
  7. पंचाग्नि अखाड़ा
  8. नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा
  9. वैष्णव अखाड़ा
  10. उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा
  11. उदासीन नया अखाड़ा
  12. निर्मोही अखाड़ा
  13. निर्मल पंचायती अखाड़ा

नागा सन्यासी का कैसे होता अंतिम संस्कार ?

मृत्यु के पश्चात नागा साधु के पार्थिव देह को समाधि दी जाती है। समाधि देने की दो परंपरा है – जल समाधि और थल समाधि। नागा संन्यासियों का दाह संस्कार नहीं किया जाता क्योंकि वह पहले ही अपना पिंडदान कर चुके होते हैं।

महाकुंभ का सबसे बड़ा आकर्षण भी नागा संन्यासी ही होते हैं।जब उनकी पेशवाई होती है तो लोग छतों से खड़े होकर पुष्प वर्षा करते हैं।रास्ते में लोग उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। 45 दिनों तक संगम तट पर धूनी रमाने के बाद नागा संन्यासी फिर अपनी रहस्यमयी दुनिया में वापस चले जाते हैं।

Official website : Maha kumbh Mela 2025